उसने एक रोज़ मुझसे कहा कि अगर लॉकडाउन के दिनों में जो भी बातें हमने की, उनको रिकॉर्ड करते तो अच्छा पॉडकास्ट बन सकता था। आज जब उससे बात नहीं होती तब उसकी बात याद आ रही है। ये मेरे जीवन का शायद पहला संवाद था जिसमें एक व्यक्ति को इस बात का मलाल था कि वो कंटेंट नहीं बन पाया, या यूँ कहें, वक़्त रहते कंटेंट नहीं बन पाया।
शब्दकोश में कंटेंट का अर्थ दिखता है सामग्री। तो क्या वो सामग्री बनना चाहती थी? नहीं। वो हमारी तीन-तीन घंटे चलने वाली कॉल को सामग्री बन सकने की संभावना से देख रही थी। मैं सोचता हूँ क्या मैं उससे तीन तीन घंटे बात करता अगर मुझे ये पता रहता कि हमारी बात चीत दरअसल सामग्री है? क्या मैं ईयरफ़ोन कान में लगाये हुए घंटों अपनी छत पर पैदल चल पाता? क्या मैं उससे वो सब कुछ वैसे ही कह पाता जैसे उससे कहा? या फिर क्या वो मुझे वो सब कुछ वैसे ही कह पाती जैसे उसने कहा? मुझसे नहीं लगता।
कंटेंट के विस्फोट के दौर में सोचता हूँ कि एक कवि क्या कर सकता है ? कविता कंटेंट होने से रही और कवि ख़ुद को कंटेंट बनाने से रहा। कवि है वो, मामूली बात नहीं है कवि होना। पैसा कंटेंट में है, शोहरत कंटेंट में है, भीड़ वाली इज़्ज़त कंटेंट में है। सुनने में आया कि एक कंटेंट- कविता लिखने वाली कवियित्री को दस लाख की डील मिली किसी बड़े कॉर्पोरेट हाउस से। दस लाख! कितने तो कवियों के जीवन की कुल जमा पूँजी नहीं रही होगी इतनी। क्या निराला कंटेंट लिखते?
ये बेचारे माध्यम वर्ग के सरफिरे लोग। कितनी रस्सा कशी में जीवन बिताते हैं। कोई दिन के १२ घंटे नौकरी करके कविता लिख रहा है। कोई संपादन के किसी काम में कहीं लगा हुआ है और कविता लिख रहा है। कोई कॉर्पोरेट मज़दूरी करते हुए दिन में कोड्स और रात में कविता लिख रहा है। कोई किसी मीडिया संस्थान में काम करते हुए दिन भर रिपोर्ट लिखता है और रात को कविता। एक कवि है जो किसी पॉडकास्ट के इंट्रो के लिए लिख रहा है। क्या शानदार गद्य है उसका। अफ़सोस हर बार उसका गद्य पढ़ते हुए उसका नाम नहीं लिया जाता है। बढ़िया काव्यात्मक गद्य है उसके पास।
मेरा एक जूनियर था, बी ए फर्स्ट ईयर में, अच्छी कविताएँ लिखता था। मुक्तिबोध का उसपे बहुत असर था। सबपे होता है। एक दिन मैंने उसे दस लाख वाली बात बतायी। उसने हँसते हुए कहा भैया फिर हम कविता क्यों लिख रहे हैं, कंटेंट ही लिखते हैं । कम से कम एक बुलट तो ख़रीद लेंगे, अभी जो हाल हैं साइकिल का भी जुगाड़ नहीं लगेगा। मैं उसका ध्यान कविता और कंटेंट से हटा कर एस॰एस॰सी की ओर ले गया जिसकी वो तैयारी कर रहा था। अफ़सर बनेगा तो बुलेट ले लेगा, कम अज़ कम दहेज में तो पा ही जाएगा। कविता न ख़ुद बुलट देगी न ही दहेज में दिलवायेगी।
एक शायर दोस्त ने अभी हाल ही में कहा कि मुझे लगता हम अपनी ज़िंदगी में किताब बिलकुल ख़त्म होते देख लेंगे। मैं चुप रहा। तब से लेकर अपने कमरे पर पहुँचने तक, एक दम चुप। अब सोचता हूँ किताब कंटेंट बन गई तो बच जाएगी। किताब अगर किताब रही तो शायद न बच पाये। कविता का क्या होगा ? कवि का क्या होगा ? किताब शायद बच जाये।
बेहतरीन प्रस्तुति। कंटेंट की होड़ में हमने किताबों को , कविताओं को जीना कम कर दिया है उन्हें बेचना शुरू कर दिया है। हमने भाषा को पीछे छोड़ दिया है ।
Bhaiya aap likhte rahiye padh kr acha lagta hai.