‘लफ़ड़ा’, क्या ख़ूबसूरत लफ़्ज़ है!
‘फ़’ और ‘ड़’ के टकराने से जो आवाज़ पैदा हो रही है वो इस बात की तरफ़ इशारा कर देती है कि मामला गम्भीर है। लफ़ड़ा शब्द बचपन की स्मृतियों से जितना याद कर पाता हूँ, उससे तो यही याद आता है कि वज़न-दार, भारी-भरकम शब्द था। पर इस वज़नदार शब्द की रेड मार ली गयी इसके आगे ‘ई’ लगा के। यानी ‘ई-लफ़ड़ा’। ‘ई-मेल’ की शुद्ध हिंदी बीते कुछ सालों से हिन्दू शेर प्रचारित करने का भरसक प्रयास कर ही रहे थे कि जेन-ज़ी नमूनों ने उनकी तमाम कोशिशों पर पेशाब कर दिया।
‘ई-लफ़ड़ा’ शब्द का पूरा क्रेडिट रजत दलाल को मिलना चाहिए। बीते चार महीने से अगर कोई इंस्टाग्राम पर लगातार रेलेवेंट बना रहा है तो वो हैं रजत दलाल। रजत भाई ऑनलाइन लफ़ड़े कर रहे थे (जिनमें से कुछ प्रैंक भी थे) और बच्चा लोग गैंग वार देखने को उत्सुक थे, वो भी रील और स्टोरीज़ पर। कट्टा, बंदूक और हथगोलों की दुनिया से दूर रही ये मासूम बच्चों की फौज रस चाह रही थी, जो बार-बार इन्हें मिलते -मिलते रह जा रहा था। अंततः धीरे-धीरे ये मासूम अबोध बालक समझ गए कि ये लफ़ड़ा तो नहीं हो रहा है। कुछ तो है जो लफ़ड़ा होके भी लफ़ड़ा नहीं बन पा रहा है इसलिए इन्होंने मीम्स में इसको नाम दे दिया ‘ई-लफ़ड़ा’। आपको हो सकता है कि ये शब्द सुनके हँसी आये, मगर सोचिये जब ‘ई-मेल’ हो सकता है, ‘ई- बुक’ हो सकती है, यहाँ तक कि ‘ई-गर्ल’ हो सकती है, तो ‘ई-लफ़ड़ा’ क्यूँ नहीं हो सकता? ये “गंगा-थेम्स” तहज़ीब की मिसाल है। भाषा के आगे बढ़ने का एक बेहतरीन उदाहरण है।
हिंदी साहित्य जगत के तमाम दिग्गज लोग ऐसे ही ‘ई-लफ़ड़े’ आये दिन फेसबुक पर करते रहते हैं। इन लफ़ड़ों को कुछ दिग्गज लोग साहित्यिक बहस का नाम देते हैं। उनका तर्क ये है कि पहले साहित्यिक बहसें पत्रिकाओं तक सीमित थी, सभी उनको पढ़ नहीं पाते, फॉलो-उप नहीं कर पाते थे, मगर अब ये बहसें सबके लिए मौजूद हैं। सभी इनको पढ़ सकते हैं और इनका हिस्सा बन सकते हैं।
सुबह से शाम स्टोरी और पोस्ट पर “शिट-पोस्टिंग” करने वाली जनरेशन यह नहीं समझेगी की फेसबुक को साहित्यिक जगत के लोग कितना सीरियसली ले रहे हैं। मैं एक छोटा सा उदाहरण आपको देता हूं, इस बार पुस्तक मेले में मैंने कम-अज़-कम दस हिंदी के लेखक, कवियों की किताबों के विमोचन में हुई बातचीत सुनी। दस में से सात लोगों ने किसी न किसी तरह फेसबुक का ज़िक्र उन चर्चाओं में किया। मार्क ख़ुद नहीं जानता उसके कन्धों पर कितना बोझ है।
बीते 25 दिन में तीन ‘ई-लफ़ड़े’ अनलॉक हो चुके हैं। अभी इस समय चल रहा है ‘निर्मल वर्मा कांड’। मेरे एक मित्र हैं, नाम नहीं बताऊंगा। मैं उन्हें ‘घसीटे’ कहता हूँ। कारण ये है कि जब वो अपने पर आते हैं तो महीने की 15 कविता घसीट देते हैं। उसके बाद ताबड़तोड़ फेसबुक पर उन्हें पोस्ट करते हैं। मैंने उनसे निर्मल वर्मा पर उनकी राय पूछी, तो हल्के बौद्धिकता के दम्भ के साथ कहने लगे “मैं उन मुठ्ठी भर लोगों में हूँ जिसे निर्मल वर्मा अद्भुत नहीं लगते हैं। कहानी की मेरी “सीमित समझ” जितनी भी है, उसके हिसाब से मुझे दृश्य से ज़्यादा कहानी ज़रूरी लगती है। दृश्यों की दुनिया में तो मैं पैदा ही हुआ हूँ, टी वी, कंप्यूटर, मोबाइल आदि। मुझे दृश्यों का विस्फोट उतना आकर्षक नहीं लगता, मैं चाहता हूँ ऐसी कथा या कहानी जो मुझे कल्पना की दुनिया में ले जाए, जहाँ कुछ-कुछ घटित होता रहे, सिर्फ़ दृश्य न हों।” घसीटे भाई कितने सही हैं, कितने ग़लत ये आप तय करें।
ये ‘ई-लफ़ड़ा’ शुरू तब हुआ जब एक अबोध बालक ने ‘इन दिनों मेरी किताब’ नाम के फेसबुक ग्रुप में निर्मल वर्मा पर और उनकी भाषा पर तीखी टिप्पणी करते हुए पोस्ट लिखा। इसके बाद इसे निर्मल वर्मा हेटर्स ने ख़ूब शेयर भी कर दिया।
निर्मल वर्मा के साहित्य पर कोई बैलेंस वादी प्रतिक्रिया देकर या यह कहकर कि मेरी तबीयत के नहीं हैं, एक बार आदमी बच सकता है, लेकिन अगर कोई यह कह दे कि निर्मल वर्मा की भाषा ही बनावटी है या निर्मल वर्मा की भाषा में अतार्किक पहलू हैं, तो यह थोड़ा सा सनसनी-ख़ेज़ मामला हो जाता है। इस मामले को और ज़ियादा सनसनीख़ेज़ बनाता है इसका बड़े-बड़े लोगों द्वारा शेयर किया जाना।
जिस वक्त मैं यह ब्लॉग आलू-भुजिया चबाते हुए लिख रहा हूं, उस वक़्त तक “निर्मल वर्मा डिफेंडर” फैन क्लब के लोगों ने लंबे-लंबे पोस्ट लिखने शुरू कर दिए हैं। जहां पर वह निर्मल वर्मा की पठनीयता की बात कर रहे हैं, निर्मल वर्मा की लिगैसी की बात कर रहे हैं, उस बच्चे की नासमझी की बात कर रहे हैं, इस बारे में बात करे रहे हैं कि कैसे निर्मल वर्मा से उनकी आशनाई तब हुई जब निर्मल वर्मा स्वयं इस दुनिया में नहीं रहे; बावजूद इसके हर बार नई पीढ़ी आती है जो निर्मल वर्मा को पढ़ती है, नए-नए संस्करण उनकी किताबों के छापे जाते हैं।
शायद हिंदी जगत में सबसे अधिक मात्रा में पढ़े जाने वाले कहानीकार भी निर्मल वर्मा ही हैं। पर अफ़सोस इस कथन को हम तथ्यों के साथ और मज़बूती नहीं प्रदान कर सकते। उसका सिंपल रीज़न ये है कि हमारे यहां के होनहार प्रकाशक लोग नम्बर्स नहीं बघारते किताब के पहले संस्करण से लेकर लेटेस्ट संस्करण तक बिकी प्रतियों का।
इसे आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं, एक दो कौड़ी की किताब है जिस पर “लैय्या-चना” भी नहीं खाया जाना चाहिए। उसका नाम है “हाउ टू विन फ्रेंड्स एंड इनफ्लुएंस पीपल” उस किताब की कोई भी प्रति आप उठाइए उसके कवर पर ही आपको लिखा हुआ दिखेगा कि इस किताब की 50 लाख कॉपीज़ बिक चुकी हैं। ऐसी शेख़ी हमारे यहां के प्रकाशक नहीं बघारते हैं। संस्कार!
ख़ैर, मैं यह बात तो जानता हूं कि जो लोग मेरे इंस्टाग्राम से आके इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं उनमें से एक तिहाई लोगों ने भी शायद निर्मल वर्मा का साहित्य नहीं पढ़ा होगा। मेरा उन सभी दोस्तों से निवेदन है कि भैया इस ब्लॉग पोस्ट को रीडिंग रिकमेंडेशन समझ लो और निर्मल वर्मा का जो भी काम मिले उसे ढूंढ-ढूंढ के पढ़ो। मैं ऐसा कई बड़े लोगों के मुंह से सुन चुका हूं की निर्मल वर्मा बड़े पुरस्कार जीत सकते थे, और यहां बड़े पुरस्कार से मेरा अर्थ है अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार है।
‘ख़ैर’ मेरे दिल के क़रीब तमाम शब्दों में सबसे क़रीब है। पसंदीदा औरत के मुंह से ये शब्द सुनता हूं तो दिल को ठहराव और शांति महसूस होती है। किसी रोज़ ‘ख़ैर’ के ऊपर एक विस्तृत ब्लॉग लिखूंगा, जिसमें सिर्फ़ इस शब्द का महिमा-मंडन होगा। तब तक के लिए फ़िराक़ का एक शेर देखो और ख़ैर शब्द की महिमा समझो:
मैं मुद्दतों जिया हूं किसी दोस्त के बग़ैर
अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो ख़ैर…
बहुत अच्छा💐
Behtar. bade bhai bahut salo baad Hindi padhi aur samajh bhi aye apka shukriya
Bahut hi shandaar
कमाल… specially loved the humor. “गंगा-थेम्स” lol
Bhai ‘how to win friends ‘ book se kya dikkat hai ?
पढ़कर बहुत अच्छा लगा ज़हीन भैया, आने वाले ब्लॉग का इंतज़ार रहेगा।